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Samveda/207

यद्वीडाविन्द्र यत्स्थिरे यत्पर्शाने पराभृतम्। वसु स्पार्हं तदा भर॥२०७

Veda : Samveda | Mantra No : 207

In English:

Seer : trishokaH kaaNvaH | Devta : indraH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : yadviiDaavindra yatsthire yatparshaane paraabhRRitam . vasu spaarha.m tadaa bhara.207

Component Words :
yat. viiDau. indra. yat. sthire. yat.parshaane .paraabhRRitam . paraa . bhRRitam. vasu. spaarham .tat.aa. bhara. .

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : त्रिशोकः काण्वः | देवता : इन्द्रः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अगले मन्त्र में यह कहा गया है कि किस प्रकार का धन हमें प्राप्त करना चाहिए।

पदपाठ : यत्। वीडौ। इन्द्र। यत्। स्थिरे। यत्।पर्शाने ।पराभृतम् । परा । भृतम्। वसु। स्पार्हम् ।तत्।आ। भर। ४।

पदार्थ : हे (इन्द्र) परमेश्वर, राजन् और आचार्य ! (यत्) जो दृढ़तारूप धन (वीडौ) दृढ़ लोहे, पत्थर, हीरे आदि में, (यत्) जो स्थिरतारूप धन (स्थिरे) अविचल सूर्य, पर्वत आदि में और (यत्) जो परोपकाररूप धन (पर्शाने) सींचनेवाले बादल में (पराभृतम्) निहित है, (तत्) वह (स्पार्हम्) स्पृहणीय (वसु) धन (आभर) हमें प्राप्त कराइए ॥४॥

भावार्थ : दृढ़तारूप गुण से ही लोहा, पत्थर, हीरा आदि पदार्थ कीर्तिशाली हैं। स्थिरतारूप गुण से ही सूर्य, पर्वत आदि गर्व से सिर उठाए खड़े हैं। सींचने-बरसने रूप गुणों से ही बादलों की सब प्रशंसा करते हैं। वह दृढ़ता का, स्थिरता का और सींचने-बरसाने का गुण हमें भी प्राप्त करना चाहिए ॥४॥


In Sanskrit:

ऋषि : त्रिशोकः काण्वः | देवता : इन्द्रः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अथ किंप्रकारकं धनमस्माभिः प्राप्तव्यमित्याह।

पदपाठ : यत्। वीडौ। इन्द्र। यत्। स्थिरे। यत्।पर्शाने ।पराभृतम् । परा । भृतम्। वसु। स्पार्हम् ।तत्।आ। भर। ४।

पदार्थ : हे (इन्द्र) परमेश्वर, राजन्, आचार्य वा ! (यत्) दृढतारूपं धनम् (वीडौ) दृढे लोहपाषाणहीरकादौ, (यत्) स्थिरतारूपं धनम् (स्थिरे) अविचले सूर्यपर्वतादौ, (यत्) परोपकाररूपं धनम् (पर्शाने२) सेचके मेघे। पृषु सेचने धातोः शानच्। मूर्धन्यस्य तालव्यादेशश्छान्दसः। पर्शान इति मेघनाम। निघं० १।१०। (पराभृतम्) निहितं वर्तते, (तत् स्पार्हम्) स्पृहणीयम् (वसु) धनम्, अस्मभ्यम् (आभर) आहर ॥४॥

भावार्थ : दृढतारूपेण गुणेनैव लोहपाषाणहीरकादयः पदार्थाः कीर्तिमन्तः सन्ति। स्थिरतारूपेण गुणेनैव सूर्यपर्वतादयो गर्वोन्नता विद्यन्ते। सेचनवर्षणरूपेण गुणेनैव मेघाः सर्वैः संस्तूयन्ते। स दृढतारूपः, स्थिरतारूपः, सेचनवर्षणरूपश्च गुणोऽस्माभिरपि प्राप्तव्यः ॥४॥

टिप्पणी:१. ऋ० ८।४५।४१, साम० १०७२, अथ० २०।४३।२।२. पर्शाने कूपादौ—इति वि०। निश्चले—इति भ०। विमर्शक्षमे—इति सा०।