Samveda/260
मा न इन्द्र परा वृणग्भवा नः सधमाद्ये। त्वं न ऊती त्वमिन्न आप्यं मा न इन्द्र परा वृणक्॥२६०
Veda : Samveda | Mantra No : 260
In English:
Seer : rebhaH kaashyapaH | Devta : indraH | Metre : bRRihatii | Tone : madhyamaH
Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.
Verse : maa na indra paraa vRRiNagbhavaa naH sadhamaadye . tva.m na uutii tvaminna aapya.m maa na indra paraa vRRiNak.260
Component Words : maa. naH. indra. paraa vRRiNak.bhava. naH. sadhamaadye .sadha.maadye . tvam. naH. uutii. tvam.it. naH. aapyam. maa. naH indra. paraa. vRRiNak..
Word Meaning :
Verse Meaning :
Purport :
In Hindi:
ऋषि : रेभः काश्यपः | देवता : इन्द्रः | छन्द : बृहती | स्वर : मध्यमः
विषय : अगले मन्त्र में पुनः परमेश्वर, आचार्य और राजा से प्रार्थना की गयी है।
पदपाठ : मा। नः। इन्द्र। परा वृणक्।भव। नः। सधमाद्ये ।सध।माद्ये । त्वम्। नः। ऊती। त्वम्।इत्। नः। आप्यम्। मा। नः इन्द्र। परा। वृणक्।८।
पदार्थ : हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवान् परमेश्वर, आचार्य व राजन् ! आप (नः) हमें (मा परावृणक्) मत छोड़ो। (सधमाद्ये) जहाँ साथ-साथ आनन्द से रहते हैं उस घर, यज्ञ, गुरुकुल, सभास्थल, राष्ट्र आदि में, आप (नः) हमारे (भव) सहायक होवो। (त्वम्) आप (नः) हमारी (ऊती) रक्षा के लिए होवो। (त्वम् इत्) आप ही (नः) हमारे (आप्यम्) बन्धु बनो। हे (इन्द्र) परमेश्वर आचार्य व राजन् ! (नः मा परावृणक्) आप हमें असहाय मत छोड़ो ॥यहाँ पुनरुक्ति से उत्कट इच्छा सूचित होती है। निरुक्तकार ने भी कहा है कि पुनरुक्ति में बहुत बड़ा अर्थ छिपा होता है, जैसे किसी अद्भुत वस्तु को देखकर द्रष्टा कहता है—“अहो दर्शनीय है, अहो दर्शनीय है।” (निरु० १०।४०) ॥८॥इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥८॥
भावार्थ : परमात्मा, गुरुजन और राजा का यथायोग्य पूजन व सत्कार करके उनसे बहुमूल्य लाभ प्राप्त करने चाहिएँ ॥८॥
In Sanskrit:
ऋषि : रेभः काश्यपः | देवता : इन्द्रः | छन्द : बृहती | स्वर : मध्यमः
विषय : अथ पुनः परमेश्वर आचार्यो नृपतिश्च प्रार्थ्यते।
पदपाठ : मा। नः। इन्द्र। परा वृणक्।भव। नः। सधमाद्ये ।सध।माद्ये । त्वम्। नः। ऊती। त्वम्।इत्। नः। आप्यम्। मा। नः इन्द्र। परा। वृणक्।८।
पदार्थ : हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् परब्रह्म आचार्य राजन् वा ! त्वम् (नः) अस्मान् (मा परावृणक्) मा परित्याक्षीः। परा पूर्वो वृजी वर्जने रौधादिकः, लङ्, माङ्योगे अडभावः। (सधमाद्ये) सह माद्यन्ति जना अत्रेति सधमाद्यः गृहं, यज्ञः, गुरुकुलं, सभास्थलं, राष्ट्रादिकं वा, तत्र (नः) अस्माकम् (भव) सहायको वर्तस्व। (त्वम् नः) अस्माकम् (ऊती) ऊत्यै रक्षायै भव। ऊति- शब्दाच्चतुर्थ्येकवचने ‘सुपां सुलुक्’ अ० ७।१।३९ इति पूर्वसवर्णदीर्घः। (त्वम् इत्) त्वमेव (नः) अस्माकम् (आप्यम्२) बन्धुः भव। अत्र बन्धुवाचकात् आपिशब्दात् स्वार्थे यत् प्रत्ययो ज्ञेयः। हे (इन्द्र) परमात्मन् आचार्य राजन् वा ! (नः मा परावृणक्) अस्मान् असहायान् मा परित्याक्षीः। अत्र पुनरुक्तिरुत्कटेच्छाद्योतनार्था। तथाह निरुक्तकारः ‘अभ्यासे भूयांसमर्थं मन्यन्ते, यथाऽहो दर्शनीया, अहो दर्शनीया (निरु० १०।४०)’ इति ॥८॥अत्र श्लेषालङ्कारः ॥८॥
भावार्थ : परमात्मानं गुरून् नृपतिं च यथायोग्यं सम्पूज्य सत्कृत्य च तेभ्यो बहुमूल्या लाभाः प्राप्तव्याः ॥८॥
टिप्पणी:१. ऋ० ८।९७।७ ‘सधमाद्ये’ इत्यत्र ‘सधमाद्यः’ इति पाठः।२. आप्यं ज्ञातेयम्, बन्धुः इत्यर्थः—इति भ०, सा०।