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Samveda/261

वयं घ त्वा सुतावन्त आपो न वृक्तबर्हिषः। पवित्रस्य प्रस्रवणेषु वृत्रहन्परि स्तोतार आसते॥२६१

Veda : Samveda | Mantra No : 261

In English:

Seer : medhaatithiH kaaNvaH | Devta : indraH | Metre : bRRihatii | Tone : madhyamaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : vaya.m gha tvaa sutaavanta aapo na vRRiktabarhiShaH . pavitrasya prasravaNeShu vRRitrahanpari stotaara aasate.261

Component Words :
vayam. gha. tvaa .sutaavantaH. aapaH. na. vRRiktabarhiShaH.vRRikta.barhiShaH. pavitrasya. prasravaNeShu . pra . sravaNeShu. .vRRitrahan.vRRitra.han. pari. stotaaraH. aasate . .

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : मेधातिथिः काण्वः | देवता : इन्द्रः | छन्द : बृहती | स्वर : मध्यमः

विषय : अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि क्यों हम परमेश्वर की उपासना करते हैं।

पदपाठ : वयम्। घ। त्वा ।सुतावन्तः। आपः। न। वृक्तबर्हिषः।वृक्त।बर्हिषः। पवित्रस्य। प्रस्रवणेषु । प्र । स्रवणेषु। ।वृत्रहन्।वृत्र।हन्। परि। स्तोतारः। आसते । ९।

पदार्थ : हे इन्द्र परमात्मन् ! (वृक्तबर्हिषः) जिन्होंने अन्तरिक्ष को छोड़ दिया है, ऐसे (आपः न) मेघ जलों के समान (वृक्तबर्हिषः) सांसारिक एषणाओं को छोड़े हुए (सुतावन्तः) उपासना-रसों को अभिषुत किये हुए (वयं घ) हम (त्वा) आपकी स्तुति करते हैं, क्योंकि, हे (वृत्रहन्) पापविनाशक परमेश्वर ! (स्तोतारः) आपके स्तोता लोग (पवित्रस्य) शुद्ध सात्त्विक आनन्द के (प्रस्रवणेषु) प्रवाहों में (परि आसते) तैरा करते हैं, जैसे अन्तरिक्ष को छोड़े हुए उपर्युक्त मेघ-जल (प्रस्रवणेषु) नदियों, झरनों आदियों में (परि आसते) बहते हैं ॥९॥इस मन्त्र में श्लिष्टोपमालङ्कार है। साथ ही कारणरूप उत्तरार्द्धवाक्य कार्यरूप पूर्वार्द्धवाक्य का समर्थन कर रहा है अतः कारण से कार्यसमर्थनरूप अर्थान्तरन्यास अलङ्कार भी है ॥९॥

भावार्थ : जैसे मेघों के जल आकाश को छोड़कर भूमि पर आकर धान्य, वनस्पति आदि को उत्पन्न करते हैं, वैसे ही हम पुत्रैषणा, वित्तैषणा, लोकैषणा आदि का परित्याग करके परमात्मा को प्राप्त कर आनन्द-रस को उत्पन्न करें ॥९॥


In Sanskrit:

ऋषि : मेधातिथिः काण्वः | देवता : इन्द्रः | छन्द : बृहती | स्वर : मध्यमः

विषय : अथ कुतो वयं परमेश्वरस्योपासनां कुर्म इत्याह।

पदपाठ : वयम्। घ। त्वा ।सुतावन्तः। आपः। न। वृक्तबर्हिषः।वृक्त।बर्हिषः। पवित्रस्य। प्रस्रवणेषु । प्र । स्रवणेषु। ।वृत्रहन्।वृत्र।हन्। परि। स्तोतारः। आसते । ९।

पदार्थ : हे इन्द्र परमात्मन् ! (वृक्तबर्हिषः) वृक्तं परित्यक्तं बर्हिः अन्तरिक्षं याभिस्ताः। वृक्तमित्यत्र वृजी वर्जने धातोः क्तः प्रत्ययः। बर्हिरित्यन्तरिक्षनाम, निघं० १।३। (आपः न) मेघजलानि इव (वृक्तबर्हिषः) वृक्तानि परित्यक्तानि बर्हींषि सांसारिक्य एषणा यैस्तादृशाः, (सुतावन्तः) अभिषुतोपासनारसाः। षु प्रसवैश्वर्ययोः क्तप्रत्यये सुतः। सुतशब्दान्मतुपि रूपम्। पूर्वपदस्य दीर्घश्छान्दसः। (वयं घ) वयं हि (त्वा) त्वाम् स्तुमः इति शेषः। (वृत्रहन्) हे पापहन्तः परमेश्वर ! तव (स्तोतारः) स्तुतिकर्तारः उपासकाः (पवित्रस्य) शुद्धस्य सात्त्विकानन्दस्य (प्रस्रवणेषु) प्रवाहेषु (परि आसते) परिप्लवन्ते। परित्यक्तान्तरिक्षा आपो यथा नदीनिर्झरादिषु प्रवहन्तीत्यपि सूच्यते ॥९॥अत्र श्लिष्टोपमालङ्कारः। किञ्च, कारणरूपमुत्तरार्द्धवाक्यं कार्यरूपं पूर्वार्द्धवाक्यं समर्थयतीति कारणेन कार्यसमर्थनरूपोऽर्थान्तरन्यासोऽलङ्कारः ॥९॥

भावार्थ : यथा मेघजलान्याकाशं विहाय भूमिमागत्य सस्यवनस्पत्यादिकं प्रसुवन्ति, तथैव वयं पुत्रैषणावित्तैषणालोकैषणादीनि विहाय परमात्मानमुपगम्यानन्दरसं प्रसुयाम ॥९॥

टिप्पणी:१. ऋ० ८।३३।१, साम० ८६४, अथ० २०।५२।१, २०।५७।१४, सर्वत्र मेध्यातिथिः ऋषिः।