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Samveda/393

एन्द्र नो गधि प्रिय सत्राजिदगोह्य। गिरिर्न विश्वतः पृथुः पतिर्दिवः॥३९३

Veda : Samveda | Mantra No : 393

In English:

Seer : nRRimedha aa~NgirasaH | Devta : indraH | Metre : uShNik | Tone : RRIShabhaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : endra no gadhi priya satraajidagohya . girirna vishvataH pRRithuH patirdivaH.393

Component Words :
aa.indra. naH. gadhi. priya. satraajit.satraa.jit. agohya.a.gohya. giriH.na. vishvataH . pRRithuH. patiH. divaH ..

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : नृमेध आङ्गिरसः | देवता : इन्द्रः | छन्द : उष्णिक् | स्वर : ऋषभः

विषय : अगले मन्त्र में पुनः परमात्मा की महिमा वर्णित की गयी है।

पदपाठ : आ।इन्द्र। नः। गधि। प्रिय। सत्राजित्।सत्रा।जित्। अगोह्य।अ।गोह्य। गिरिः।न। विश्वतः । पृथुः। पतिः। दिवः ।३।

पदार्थ : हे (प्रिय) प्रिय, (सत्राजित्) सत्य से असत्य पर विजय पानेवाले, (अगोह्य) छिपाये न जा सकनेवाले, किन्तु प्रकट हो जानेवाले (इन्द्र) परमात्मन् ! आप (नः) हमारे समीप (आ गधि) आओ। आप (गिरिः न) पर्वत के सदृश (विश्वतः पृथुः) सबसे विशाल और (दिवः पतिः) सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, विद्युत् आदि से जगमगाते हुए जगत् के अधिपति हो ॥३॥इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥३॥

भावार्थ : चर्म-चक्षुओं से अदृश्य भी परमेश्वर संसार में दिखायी देनेवाले अपने सत्य नियमों से और योगाभ्यासों से सबके सम्मुख प्रकट हो जाता है। आकाश को चूमनेवाले विस्तीर्ण पहाड़ के समान विशाल, सर्वव्यापक, सब ज्योतिष्मान् पदार्थों को ज्योति देनेवाला वह सब जनों से उपासना करने योग्य है ॥३॥


In Sanskrit:

ऋषि : नृमेध आङ्गिरसः | देवता : इन्द्रः | छन्द : उष्णिक् | स्वर : ऋषभः

विषय : अथ पुनः परमात्मनो महिमा वर्ण्यते।

पदपाठ : आ।इन्द्र। नः। गधि। प्रिय। सत्राजित्।सत्रा।जित्। अगोह्य।अ।गोह्य। गिरिः।न। विश्वतः । पृथुः। पतिः। दिवः ।३।

पदार्थ : हे (प्रिय) स्नेहास्पद, (सत्राजित्) सत्येनासत्यस्य विजेतः ! सत्रा इति सत्यनाम। निघं० ३।१०। (अगोह्य) गूहितुम् अशक्य (इन्द्र) परमात्मन् ! त्वम् (नः) अस्मान्, अस्मत्समीपम् (आ गधि) आगहि, आयाहि। ‘आगहि’ इति रूपं वेदे बहुशः प्रयुज्यते, अत्र हेर्धिभावः। त्वम् (गिरिः न) पर्वतः इव (विश्वतः पृथुः) सर्वतो विस्तीर्णः असि, (दिवः पतिः) सूर्यचन्द्रनक्षत्रविद्युदादिभिर्द्योतमानस्य जगतः अधीश्वरः असि ॥३॥अत्रोपमालङ्कारः ॥३॥

भावार्थ : चर्मचक्षुर्भ्यामदृश्योऽपि जगदीश्वरः संसारे दृश्यमानैः स्वकीयैः सत्यनियमैर्योगाभ्यासैश्च सर्वेषां प्रकटो जायते। गगनचुम्बिविस्तीर्णशैल इव विशालः सर्वव्यापकः समस्तानां ज्योतिष्मतां पदार्थानां ज्योतिष्प्रदायकः स सर्वैर्जनैरुपासनीयः ॥३॥

टिप्पणी:१. ऋ० ८।९८।४, अथ० २०।६४।१। उभयत्र ‘प्रियः सत्राजिदगोह्यः’ इति पाठः। साम० १२४७।