Samveda/815
यस्ते मदो वरेण्यस्तेना पवस्वान्धसा। देवावीरघशसहा॥८१५
Veda : Samveda | Mantra No : 815
In English:
Seer : ahamiiyuraa.mgirasaH | Devta : pavamaanaH somaH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH
Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.
Verse : yaste mado vareNyastenaa pavasvaandhasaa . devaaviiraghasha.m sahaa.815
Component Words : yaH. te .madaH .vareNyaH .tena .pavasva. andhasaa. devaaviiH .deva .aviiH .aghashasahaa .aghashasa .haa .
Word Meaning :
Verse Meaning :
Purport :
In Hindi:
ऋषि : अहमीयुरांगिरसः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः
विषय : प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में ४७० क्रमाङ्क पर परमात्मा के आनन्दरस के विषय में व्याख्यात हुई थी। यहाँ परमेश्वर और आचार्य से प्रार्थना की गयी है।
पदपाठ : यः। ते ।मदः ।वरेण्यः ।तेन ।पवस्व। अन्धसा। देवावीः ।देव ।अवीः ।अघशसहा ।अघशस ।हा ॥
पदार्थ : हे पवमान सोम अर्थात् पवित्रकर्त्ता आनन्दरसागार परमात्मन् वा ज्ञानरसागार आचार्य ! (यः ते) जो आपका (वरेण्यः) वरणीय, (मदः) उत्साहप्रद आनन्द-रस वा ज्ञानरस है, (तेन अन्धसा) उस आनन्दरस वा ज्ञानरस से (पवस्व) हम उपासकों वा शिष्यों को पवित्र करो और, आप (देवावीः) दिव्यगुणप्राप्ति करानेवाले, तथा (अघशंसहा) पापप्रशंसक दुर्विचारों का विनाश करनेवाले होवो ॥१॥
भावार्थ : जैसे जगदीश्वर उपासकों को आनन्दरस प्रदान करता, दिव्य गुण प्राप्त कराता और उनके दुर्विचारों को नष्ट करता है, वैसे ही शिष्यों को विद्या देना, उनका आनन्द बढ़ाना, उनके दोषों को नष्ट करना और उनमें सद्गुणों का आरोपण करना गुरुओं का कर्तव्य है ॥१॥
In Sanskrit:
ऋषि : अहमीयुरांगिरसः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः
विषय : तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ४७० क्रमाङ्के परमात्मानन्दरसविषये व्याख्याता। अत्र परमेश्वर आचार्यश्च प्रार्थ्यते।
पदपाठ : यः। ते ।मदः ।वरेण्यः ।तेन ।पवस्व। अन्धसा। देवावीः ।देव ।अवीः ।अघशसहा ।अघशस ।हा ॥
पदार्थ : हे पवमान सोम पवित्रकर्तः आनन्दरसागार परमात्मन् ज्ञानरसागार आचार्य वा ! (यः ते) यः तव (वरेण्यः) वरणीयः (मदः) उत्साहप्रदः आनन्दरसो ज्ञानरसो वा अस्ति, (तेन अन्धसा) तेन आनन्दरसेन ज्ञानरसेन वा (पवस्व) उपासकान् शिष्यान् वा अस्मान् पुनीहि। किञ्च, त्वम् (देवावीः) दिव्यगुणानां प्रापयिता, (अघशंसहा) पापप्रशंसकानां दुर्विचाराणां हन्ता च भवेति शेषः ॥१॥
भावार्थ : यथा जगदीश्वर उपासकेभ्य आनन्दरसं प्रयच्छति, दिव्यगुणान् प्रापयति, तेषां दुर्विचारांश्च हन्ति तथैव शिष्येभ्यो विद्याप्रदानं, तेषामानन्दवर्धनं, दोषाणां हननं, तेषु सद्गुणारोपणं च गुरूणां कर्त्तव्यमस्ति ॥१॥
टिप्पणी:१. ऋ० ९।६१।१९, साम० ४७०।