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Samveda/845

यस्त्वामग्ने हविष्पतिर्दूतं देव सपर्यति। तस्य स्म प्राविता भव॥८४५

Veda : Samveda | Mantra No : 845

In English:

Seer : medhaatithiH kaaNvaH | Devta : agniH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : yastvaamagne haviShpatirduuta.m deva saparyati . tasya sma praavitaa bhava.845

Component Words :
yaH .tvaam . agne .haviShpatiH. haviH .patiH .duutam .deva .saparyati. tasya .sma .praavitaa .pra. aavitaa. bhava.

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : मेधातिथिः काण्वः | देवता : अग्निः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अगले मन्त्र में पुनः परमात्मा और यज्ञ का विषय वर्णित करते हैं।

पदपाठ : यः ।त्वाम् । अग्ने ।हविष्पतिः। हविः ।पतिः ।दूतम् ।देव ।सपर्यति। तस्य ।स्म ।प्राविता ।प्र। आविता। भव॥

पदार्थ : प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे (देव) स्वतः प्रकाशमान, सबके प्रकाशक, दानादि गुणों से युक्त, सर्वान्तर्यामी (अग्ने) अग्रनायक जगदीश्वर ! (यः) जो (हविष्पतिः) हवियों का स्वामी अर्थात् अपनी हवि देकर तेरी उपासना करनेवाला मनुष्य (दूतम्) दुर्गुण, दुर्व्यसन, दुःख आदियों को दग्ध करनेवाले (त्वा) तुझ परमात्मा की (सपर्यति) उपासना करता है, (तस्य) उस उपासक का तू (प्राविता) प्रकृष्ट रक्षक (भव स्म) हो जा ॥द्वितीय—यज्ञ के पक्ष में। हे (देव) प्रकाशमान, प्रकाशक गतिमय ज्वालाओंवाले यज्ञाग्नि ! (यः) जो (हविष्पतिः) होम के योग्य सुगन्धित, मधुर, पुष्टिप्रद तथा आरोग्यप्रद द्रव्यों का स्वामी याज्ञिक जन (दूतम्) रोग, आलस्य आदियों को दग्ध करनेवाले (त्वा) तेरी (सपर्यति) यज्ञानुष्ठान द्वारा सेवा करता है, (तस्य) उस याज्ञिक मनुष्य का तू (प्राविता) प्रकृष्ट रक्षक (भव स्म) हो जा ॥२॥इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥२॥

भावार्थ : जैसे उपासना किया गया परमेश्वर उपासक के दुर्गुण आदि को दग्ध करके उसे सन्मार्ग पर चलाकर उसकी रक्षा करता है, वैसे ही आरोग्य आदि करनेवाले द्रव्यों से होम किया गया यज्ञाग्नि यजमान को आरोग्य आदि प्राप्त कराकर उसका बहुत उपकार करता है ॥२॥


In Sanskrit:

ऋषि : मेधातिथिः काण्वः | देवता : अग्निः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अथ पुनरपि परमात्मयज्ञयोर्विषयो वर्ण्यते।

पदपाठ : यः ।त्वाम् । अग्ने ।हविष्पतिः। हविः ।पतिः ।दूतम् ।देव ।सपर्यति। तस्य ।स्म ।प्राविता ।प्र। आविता। भव॥

पदार्थ : प्रथमः—परमात्मपरः। हे (देव) स्वतः प्रकाशमान, सर्वप्रकाशक, दानादिगुणयुक्त, सर्वान्तर्यामिन् (अग्ने) अग्रणीः जगदीश्वर ! (यः हविष्पतिः) हविषां पतिः स्वामी, आत्मानं हविष्कृत्वा तवोपासको जनः (दूतम्) दुर्गुणदुर्व्यसनदुःखादीनाम् उपतापकम्। [यो दुनोति उपतपति स दूतः। ‘दुतनिभ्यां दीर्घश्च उ० ३।९०’ इत्यनेन टुदु उपतापे इति धातोः क्त प्रत्ययो धातोर्दीर्घश्च।] (त्वा) त्वां परमात्मानम् (सपर्यति) उपास्ते (तस्य) उपासकस्य, त्वम् (प्राविता) प्रकर्षेण रक्षकः (भव स्म) जायस्व। [स्म इति अवश्यार्थे स्पष्टार्थे वा] ॥द्वितीयः—यज्ञपरः। हे (देव) प्रकाशमान प्रकाशक (अग्ने) गतिमयज्वाल यज्ञवह्न ! (यः हविष्पतिः) हविषां होतुं योग्यानां सुगन्धिमिष्टपुष्ट्यारोग्यकराणां द्रव्याणां पतिः स्वामी याज्ञिको जनः (दूतम्) रोगाऽऽलस्यादीनामुपतापकम् (त्वा) त्वां यज्ञवह्निम् (सपर्यति) यज्ञानुष्ठानेन परिचरति (तस्य) याज्ञिकजनस्य, त्वम् (प्राविता) प्रकर्षेण रक्षकः (भव स्म) जायस्व ॥२॥२अत्र श्लेषालङ्कारः ॥२॥

भावार्थ : यथोपासितः परमेश्वर उपासकस्य दुर्गुणादीनि दग्ध्वा तं सन्मार्गे प्रवर्त्य रक्षति, तथैवारोग्यादिकरैर्द्रव्यैर्हुतो यज्ञवह्निर्यजमानमारोग्यादिप्रापणेन बहूपकरोति ॥२॥

टिप्पणी:१. ऋ० १।१२।८।२. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं परमेश्वरपक्षे यानयन्त्रादिषु भौतिकाग्निप्रयोगविषये च व्याख्यातवान् ॥