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Samveda/867

तरणिरित्सिषासति वाजं पुरंध्या युजा। आ व इन्द्रं पुरुहूतं नमे गिरा नेमिं तष्टेव सुद्रुवम्॥८६७

Veda : Samveda | Mantra No : 867

In English:

Seer : vasiShTho maitraavaruNiH | Devta : indraH | Metre : pragaathaH(viShamaa bRRihatii samaa satobRRihatii) | Tone : madhyamaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : taraNiritsiShaasati vaaja.m purandhyaa yujaa . aa va indra.m puruhuuta.m name giraa nemi.m taShTeva sudruvam.867

Component Words :
taraNiH .it.siShaasati .vaajam .purandhyaa .puram .dhyaa .yujaa .aa .vaH .indram .puhuutam .puru .huutam .name .giraa .nemim .tuShTaa .iva .sudruvam .su .druvam.

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : वसिष्ठो मैत्रावरुणिः | देवता : इन्द्रः | छन्द : प्रगाथः(विषमा बृहती समा सतोबृहती) | स्वर : मध्यमः

विषय : प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में २३८ क्रमाङ्क पर परमेश्वर और राजा के विषय में व्याख्यात की जा चुकी है। यहाँ धनदाता की प्रशंसा है।

पदपाठ : तरणिः ।इत्।सिषासति ।वाजम् ।पुरन्ध्या ।पुरम् ।ध्या ।युजा ।आ ।वः ।इन्द्रम् ।पुहूतम् ।पुरु ।हूतम् ।नमे ।गिरा ।नेमिम् ।तुष्टा ।इव ।सुद्रुवम् ।सु ।द्रुवम्॥

पदार्थ : (तरणिः इत्) आपत्ति में पड़े हुओं को दुःखों से तराने की इच्छावाला मनुष्य ही (युजा) सहायकभूत, (पुरन्ध्या) बहुतों का धारण करनेवाली सहानुभूतिपूर्ण बुद्धि से (वाजम्) धन (सिषासति) दूसरों को देना चाहता है। इसलिए मैं (पुरुहूतम्) बहुतों से पुकारे जानेवाले (वः) तुम्हारे (इन्द्रम्) धनिक वर्ग को (गिरा) वाणी से, उपदेश के द्वारा (आनमे) झुकाता हूँ, अर्थात् गरीबों को धन देने के लिए प्रवृत्त करता हूँ, (तष्टा इव) जैसे शिल्पी (नेमिम्) रथ के पहिए की परिधि को (सुद्रुवम्) सुचारू रूप से घूमने योग्य बनाता है ॥१॥यहाँ उपामलङ्कार है ॥१॥

भावार्थ : मनुष्यों को चाहिए कि ईश्वरोपासना के साथ धनादि के दान द्वारा दीनों की सहायता भी करें ॥१॥


In Sanskrit:

ऋषि : वसिष्ठो मैत्रावरुणिः | देवता : इन्द्रः | छन्द : प्रगाथः(विषमा बृहती समा सतोबृहती) | स्वर : मध्यमः

विषय : तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके २३८ क्रमाङ्के परमेश्वरनृपत्योर्विषये व्याख्यातपूर्वा। अत्र धनदः प्रशस्यते।

पदपाठ : तरणिः ।इत्।सिषासति ।वाजम् ।पुरन्ध्या ।पुरम् ।ध्या ।युजा ।आ ।वः ।इन्द्रम् ।पुहूतम् ।पुरु ।हूतम् ।नमे ।गिरा ।नेमिम् ।तुष्टा ।इव ।सुद्रुवम् ।सु ।द्रुवम्॥

पदार्थ : (तरणिः इत्) आपद्गतान् दुःखेभ्यः तारयितुकाम एव जनः (युजा) सहायभूतया (पुरन्ध्या) बहुधारिकया सहानुभूतिपूर्णया धिया (वाजम्) धनम् (सिषासति) अन्येभ्यो दातुमिच्छति। [सनितुं दातुमिच्छतीति सिषासति। षणु दाने सन्नन्तं रूपम्।] अतोऽहम् (पुरुहूतम्) बहुभिराहूतम् (वः) युष्माकम् (इन्द्रम्) धनिकं जनम् (गिरा) वाचा (आनमे) आनमये, निर्धनेभ्यो धनं दातुम् सुप्रवर्तये, (तष्टा इव) शिल्पकारो यथा (नेमिम्) रथचक्रवलयम् (सुद्रुवम्) सुप्रवर्तनयोग्यां करोति तद्वत्। [सुष्ठु द्रवतीति सुद्रुः तां सुद्रुवम्] ॥१॥२अत्रोपमालङ्कारः ॥१॥

भावार्थ : मनुष्यैरीश्वरोपासनया सह धनादिदानेन दीनानां साहाय्यमपि विधेयम् ॥१॥

टिप्पणी:१. ऋ० ७।३२।२०, ‘सुद्रुवम्’ इत्यत्र ‘सुद्र्व॑म्’ इति पाठः। साम० २३८।२. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं राजप्रजाजनाः परस्परं कथं वर्तेरन्निति विषये व्याख्यातवान्।