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Samveda/870

अभि ब्रह्मीरनूषत यह्वीर्ऋतस्य मातरः। मर्जयन्तीर्दिवः शिशुम्॥८७०

Veda : Samveda | Mantra No : 870

In English:

Seer : trita aaptayaH | Devta : pavamaanaH somaH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : abhi brahmiiranuuShata yahviirRRitasya maataraH . marjayantiirdivaH shishum.870

Component Words :
abhi .brahmiiH .anuuShata .yahviiH .RRitasya .maataraH .marjayantiiH .divaH .shishum.

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : त्रित आप्तयः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अगले मन्त्र में वेदवाणी का और चन्द्रमा का विषय वर्णित है।

पदपाठ : अभि ।ब्रह्मीः ।अनूषत ।यह्वीः ।ऋतस्य ।मातरः ।मर्जयन्तीः ।दिवः ।शिशुम्॥

पदार्थ : प्रथम—वेदवाणी के पक्ष में। (यह्वीः) महत्त्वशालिनी, (ऋतस्य मातरः) सत्यज्ञान का निर्माण करनेवाली, (दिवः शिशुम्) तेजस्वी परमात्मा के पुत्र मानव को (मर्जयन्तीः) शुद्ध-पवित्र करती हुई (ब्रह्मीः) ब्रह्मा से प्रोक्त वेदवाणियाँ (अभि अनूषत) गुण-वर्णन द्वारा सब पदार्थों की स्तुति करती हैं ॥द्वितीय—चन्द्र के पक्ष में। (यह्वीः) महान् (ऋतस्य मातरः) वृष्टि-जल का निर्माण करनेवाली, (मर्जयन्तीः) अपने प्रकाश द्वारा सबका शोधन करनेवाली या सबको अलङ्कृत करनेवाली (ब्रह्मीः) महान् सूर्य की कान्तियाँ (दिवः शिशुम्) आकाश के शिशु के समान विद्यमान चन्द्रमा को (अभि) लक्ष्य करके अर्थात् उसे प्रकाशित करने के लिए (अनूषत) जाती हैं ॥२॥इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। द्वितीय व्याख्या में चन्द्रमा को ‘आकाश का शिशु’ कहने में लुप्तोपमा है ॥२॥

भावार्थ : जैसे माताएँ शिशु को प्राप्त होती हैं, वैसे ही वेदवाणियाँ गुणवर्णन द्वारा सब पदार्थों को प्राप्त होती हैं और सूर्यकिरणें चन्द्रमा को प्रकाशित करने के लिए उसे प्राप्त होती हैं ॥२॥


In Sanskrit:

ऋषि : त्रित आप्तयः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : अथ वेदवाग्विषयं चन्द्रविषयं चाह।

पदपाठ : अभि ।ब्रह्मीः ।अनूषत ।यह्वीः ।ऋतस्य ।मातरः ।मर्जयन्तीः ।दिवः ।शिशुम्॥

पदार्थ : प्रथमः—वेदवाग्विषयकः। (यह्वीः) यह्व्यः महत्यः। [यह्व इति महतो नामधेयं यातश्च हूतश्च भवति। निरु० ८।८।] (ऋतस्य मातरः२) सत्यज्ञानस्य निर्मात्र्यः, (दिवः शिशुम्) द्योतमानस्य परमात्मनः पुत्रभूतं मानवम् (मर्जयन्तीः) मर्जयन्त्यः शोधयन्त्यः (ब्रह्मीः) ब्रह्म्यः, ब्रह्मणा प्रोक्ताः वेदवाचः (अभि अनूषत) गुणवर्णनेन सर्वान् पदार्थान् अभिष्टुवन्ति ॥द्वितीयः—चन्द्रविषयकः। (यह्वीः) महत्यः, (ऋतस्य मातरः) वृष्टिजलस्य निर्मात्र्यः। [ऋतमिति उदकनाम। निघं० १।१२।] (मर्जयन्तीः) प्रकाशेन सर्वान् शोधयन्त्यः अलङ्कुर्वत्यो वा (ब्रह्मीः) ब्रह्मणः महतः सूर्यस्य इमाः, सूर्यसम्बन्धिन्यः दीधितयः (दिवः शिशुम्) आकाशस्य शिशुमिव विद्यमानं चन्द्रम् (अभि) अभिलक्ष्य, तं प्रकाशयितुम् (अनूषत) गच्छन्ति। [नवते गतिकर्मा। निघं० २।१४] ॥२॥अत्र श्लेषालङ्कारः। द्वितीये व्याख्याने ‘दिवः शिशुम्’ इत्यत्र लुप्तोपमम् ॥२॥

भावार्थ : यथा मातरः शिशुमुपगच्छन्ति तथैव वेदवाचः गुणवर्णनद्वारा सर्वान् पदार्थानुपगच्छन्ति, सूर्यरश्मयश्च चन्द्रं प्रकाशयितुं तमुपगच्छन्ति ॥२॥

टिप्पणी:१. ऋ० ९।३३।५, ‘म॒र्मृ॒ज्यन्ते॑ दि॒वः शिशु॑म्’ इति तृतीयः पादः।२. ऋतस्य यज्ञस्य मातरः निर्मात्र्यः स्तुतयः—इति सा०। मातरः धेनवः आदित्यरश्मयो वा आपो वा—इति वि०।