Samveda/904
हिन्वन्ति सूरमुस्रयः स्वसारो जामयस्पतिम्। महामिन्दुं महीयुवः॥९०४
Veda : Samveda | Mantra No : 904
In English:
Seer : bhRRigurvaaruNirjamadagnirbhaargavo vaa | Devta : pavamaanaH somaH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH
Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.
Verse : hinvanti suuramusrayaH svasaaro jaamayaspatim . mahaamindu.m mahiiyuvaH.904
Component Words : hinvanti .suuram .usravaH .svasaaraH. jaamayaH .patim .mahaam. indum .mahiiyuvaH.
Word Meaning :
Verse Meaning :
Purport :
In Hindi:
ऋषि : भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्भार्गवो वा | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः
विषय : प्रथम ऋचा में परमात्मा का विषय कहते हैं।
पदपाठ : हिन्वन्ति ।सूरम् ।उस्रवः ।स्वसारः। जामयः ।पतिम् ।महाम्। इन्दुम् ।महीयुवः॥
पदार्थ : (सूरम्) सूर्य को (उस्रयः) किरणें (हिन्वन्ति) प्राप्त होती हैं, (स्वसारः) विवाहित (जामयः) बहिनें (पतिम्) अपने पति को (हिन्वन्ति) प्राप्त होती हैं। इसी प्रकार (महीयुवः) पूजा के इच्छुक उपासक (महाम्) महान्, (इन्दुम्) रस से सराबोर करनेवाले उपास्य परमात्मा को (हिन्वन्ति) प्राप्त होते हैं ॥१॥यहाँ अप्रस्तुत किरणों (उस्रा) और बहिनों (जामयः) का तथा प्रस्तुत पूजेच्छुक उपासकों (महीयुवः) का ‘हिन्वन्ति’ रूप एक क्रिया से योग होने के कारण दीपक अलङ्कार है। साथ ही ‘स्वसारः’ और जामयः’ दोनों पदों के बहिन वाचक होने के कारण पुनरुक्ति प्रतीत होने से तथा व्याख्यात प्रकार से उसका परिहार हो जाने से पुनरुक्तवदाभास अलङ्कार भी है। ‘सूर, सारो’ तथा ‘महा, मही’ में छेकानुप्रास है ॥१॥
भावार्थ : जो लोग परमात्मा को पाने के लिए सर्वभाव से तत्पर होते हैं, वे अन्त में उसे पा ही लेते हैं ॥१॥
In Sanskrit:
ऋषि : भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्भार्गवो वा | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः
विषय : तत्रादौ परमात्मविषयमाह।
पदपाठ : हिन्वन्ति ।सूरम् ।उस्रवः ।स्वसारः। जामयः ।पतिम् ।महाम्। इन्दुम् ।महीयुवः॥
पदार्थ : (सूरम्) सूर्यम् (उस्रयः) रश्मयः (हिन्वन्ति) प्राप्नुवन्ति, (स्वसारः) सुष्ठु परत्र प्रक्षिप्ताः, विवाहित इत्यर्थः (जामयः) भगिन्यः (पतिम्) स्वीयं भर्तारम् (हिन्वन्ति) प्राप्नुवन्ति। तथैव (महीयुवः) पूजाकामाः उपासकाः (महाम्) महान्तम् (इन्दुम्) रसेन क्लेदकम् उपास्यं परमात्मानम् (हिन्वन्ति) प्राप्नुवन्ति ॥ [सुष्ठु अस्यते इति स्वसा सुपूर्वाद् असु क्षेपणे धातोः ‘सावसेर्ऋन्’ उ० २।९८ इति ऋन् प्रत्ययः। ‘जामये भगिन्यै। जामिरन्येऽस्यां जनयन्ति जामपत्यम्, जमतेर्वा स्याद् गतिकर्मणो निर्गमनप्राया भवति’। निरु० ३।६। महीयुवः, मही पूजा, मह पूजायाम्, कामयन्ते इति, क्यचि उ प्रत्ययः] ॥१॥अत्राप्रस्तुतयोः उस्रिजाम्योः प्रस्तुतानां च महीयुवां ‘हिन्वन्ति’ इत्येकक्रियायोगाद् दीपकालङ्कारः किञ्च ‘स्वसारो जामयः’ इथ्युभयोर्भगिनीवाचकत्वात् पुरनरुक्तिप्रतीतेः व्याख्यातदिशा च तत्परिहारात् पुनरुक्तवदाभासोऽपि। ‘सूर, सारो’ ‘महा, मही’ इत्यत्र च छेकानुप्रासः ॥१॥
भावार्थ : ये परमात्मानमाप्तुं सर्वात्मना तत्परा जायन्ते तेऽन्ततस्तमाप्नुवन्त्येव ॥१॥
टिप्पणी:१. ऋ० ९।६५।१।