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Samveda/1081

एतमु त्यं दश क्षिपो मृजन्ति सिन्धुमातरम्। समादित्येभिरख्यत॥१०८१

Veda : Samveda | Mantra No : 1081

In English:

Seer : ahamiiyuraa.mgirasaH | Devta : pavamaanaH somaH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH

Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.

Verse : etamu tya.m dasha kShipo mRRijanti sindhumaataram . samaadityebhirakhyata.1081

Component Words :
etam. u .ttyam .dasha .kShipaH .mRRijanti .sindhumaataram .sindhu .maataram .sam .aadityebhiH .aa. dityebhiH .akhyata.

Word Meaning :


Verse Meaning :


Purport :


In Hindi:

ऋषि : अहमीयुरांगिरसः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : प्रथम मन्त्र में जीवात्मा का विषय वर्णित है।

पदपाठ : एतम्। उ ।त्त्यम् ।दश ।क्षिपः ।मृजन्ति ।सिन्धुमातरम् ।सिन्धु ।मातरम् ।सम् ।आदित्येभिः ।आ। दित्येभिः ।अख्यत॥

पदार्थ : (सिन्धुमातरम्) आनन्द-रस बहानेवाली जगदम्बा जिसकी माता है, ऐसे (एतम् उ त्यम्) इस उस सोम नामक जीवात्मा को (दश क्षिपः) इन्द्रियदोषों को दूर फेंकनेवाले दस प्राण (मृजन्ति) अलङ्कृत करते हैं। यह सोम जीवात्मा (आदित्येभिः) सूर्य के समान ज्ञानप्रकाश से प्रकाशित गुरुजनों से (सम् अख्यत) विद्याप्रकाश को प्राप्त करता है ॥१॥

भावार्थ : प्राणों से युक्त ही मनुष्य का आत्मा शरीर को जीवित किये रखता है और शरीर का अधिष्ठातृत्व करता है। गुरुओं के उपदेश के विना वह स्वयं ज्ञानी नहीं होता ॥१॥


In Sanskrit:

ऋषि : अहमीयुरांगिरसः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः

विषय : तत्रादौ जीवात्मविषयो वर्ण्यते।

पदपाठ : एतम्। उ ।त्त्यम् ।दश ।क्षिपः ।मृजन्ति ।सिन्धुमातरम् ।सिन्धु ।मातरम् ।सम् ।आदित्येभिः ।आ। दित्येभिः ।अख्यत॥

पदार्थ : (सिन्धुमातरम्) सिन्धुः आनन्दरसस्यन्दिनी जगदम्बा माता यस्य तथाविधम् (एतम् उ त्यम्) एतं खलु तम् सोमं जीवात्मानम् (दश क्षिपः) इन्द्रियदोषाणां प्रक्षेप्तारः दश प्राणाः (मृजन्ति) अलङ्कुर्वन्ति। एष सोमः जीवात्मा (आदित्येभिः) आदित्यवद् ज्ञानप्रकाशेन प्रकाशितैः गुरुजनैः (सम् अख्यत) विद्याप्रकाशं लभते ॥१॥

भावार्थ : प्राणैः सहचरित एव मनुष्यस्यात्मा देहं जीवयति देहाधिष्ठातृत्वं च करोति। गुरूणामुपदेशं विना स स्वयमेव ज्ञानवान् न भवति ॥१॥

टिप्पणी:१. ऋ० ९।६१।७।