Samveda/1264
एष प्रत्नेन जन्मना देवो देवेभ्यः सुतः। हरिः पवित्रे अर्षति॥१२६४
Veda : Samveda | Mantra No : 1264
In English:
Seer : shunaH shepa aajiigartiH sa devaraataH kRRitrimo vaishvaamitraH | Devta : pavamaanaH somaH | Metre : gaayatrii | Tone : ShaDjaH
Subject : English Translation will be uploaded as and when ready.
Verse : eSha pratnena janmanaa devo devebhyaH sutaH . hariH pavitre arShati.1264
Component Words : eShaH .prattena .janmanaa .devaH. devebhyaH. sutaH .hariH .pavitre .arShati.
Word Meaning :
Verse Meaning :
Purport :
In Hindi:
ऋषि : शुनः शेप आजीगर्तिः स देवरातः कृत्रिमो वैश्वामित्रः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः
विषय : नवमी ऋचा पहले ७५८ क्रमाङ्क पर परमात्मा के विषय में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ मनुष्य के द्वितीय जन्म का विषय है।
पदपाठ : एषः ।प्रत्तेन ।जन्मना ।देवः। देवेभ्यः। सुतः ।हरिः ।पवित्रे ।अर्षति॥
पदार्थ : (प्रत्नेन जन्मना) आचार्य से प्राप्त श्रेष्ठ जन्म से (देवेभ्यः) दिव्य गुणों के प्रसारार्थ (सुतः) उत्पन्न किया हुआ (एषः) यह (हरिः) दीनों का दुःख हरनेवाला मनुष्य (पवित्रे) पवित्र कर्म में (अर्षति) संलग्न होता है ॥आचार्य जब बालक का उपनयन संस्कार करता है, तब उसे अपने गर्भ में धारण करता है। तीन रात्रियों तक उसे गर्भ में रखे रहता है। जब वह जन्म लेता है अर्थात् स्नातक बनता है, तब उसे देखने के लिए चारों ओर से विद्वान् लोग एकत्र होते हैं (अथ० ११।५।३)। आचार्य विद्या से विद्यार्थी को दूसरा जन्म देता है, वही श्रेष्ठ जन्म है, माता-पिता तो शरीर को ही जन्म देते हैं। (आप० १।१।१।१४-१८)। इस द्वितीय जन्म में सावित्री (गायत्री) माता होती है और आचार्य पिता (मनु० २।१७०)। इत्यादि प्रमाणों के आधार पर आचार्य और सावित्री के द्वारा जो द्वितीय जन्म प्राप्त होता है, वही श्रेष्ठ है ॥९॥
भावार्थ : प्रथम जन्म माता-पिता से प्राप्त होता है, वह मुख्य रूप से शरीर का जन्म होता है। दूसरा विद्या और सदाचार का जन्म आचार्य तथा सावित्री से होता है। द्वितीय जन्म प्राप्त करके मनुष्य पवित्र आचरणवाला हो जाता है। द्वितीय जन्म से ही वह द्विज और उस जन्म की प्राप्ति के बिना शूद्र कहलाता है ॥९॥
In Sanskrit:
ऋषि : शुनः शेप आजीगर्तिः स देवरातः कृत्रिमो वैश्वामित्रः | देवता : पवमानः सोमः | छन्द : गायत्री | स्वर : षड्जः
विषय : नवमी ऋक् पूर्वं ७५८ क्रमाङ्के परमात्मविषये व्याख्याता। अत्र मनुष्यस्य द्वितीयजन्मविषयमाह।
पदपाठ : एषः ।प्रत्तेन ।जन्मना ।देवः। देवेभ्यः। सुतः ।हरिः ।पवित्रे ।अर्षति॥
पदार्थ : (प्रत्नेन जन्मना) आचार्यात् प्राप्तेन श्रेष्ठेन जनुषा (देवेभ्यः) दिव्यगुणेभ्यः, दिव्यगुणानां प्रचारायेत्यर्थः (सुतः) उत्पादितः (एषः) अयम् (हरिः) दीनानां दुःखहर्ता मनुष्यः। [हरयः इति मनुष्यनामसु पठितम्। निघं० २।३।] (पवित्रे) पवित्रे कर्मणि (अर्षति) गच्छति, व्याप्रियते ॥आ॒चा॒र्यऽ उप॒नय॑मानो ब्रह्मचा॒रिणं॑ कृणुते॒ गर्भ॑म॒न्तः। तं रात्री॑स्ति॒स्र उ॒दरे॑ बिभर्ति॒ तं जा॒तं द्रष्टु॑मभि॒संय॑न्ति दे॒वाः ॥ अथ० ११।५।३, यस्माद् धर्मानाचिनोति स आचार्यः स हि विद्यातस्तं जनयति। तच्छ्रेष्ठं जन्म। शरीरमेव मातापितरौ जनयतः ॥ आप० ध० सू० १।१।१।१४-१८। अत्रास्य माता सावित्री पिता त्वाचार्य उच्यते। मनु० २।१७०। इत्यादिप्रामाण्याद् आचार्यसावित्र्योः सकाशाद् यद् द्वितीयं जन्म प्राप्यते तच्छ्रेष्ठम् ॥९॥
भावार्थ : प्रथमं जन्म मातापितृभ्यां प्राप्यते, तच्च मुख्यतो देहस्य जन्म भवति। द्वितीयं विद्यायाः सदाचारस्य च जन्माचार्यसावित्र्योः सकाशाज्जायते। द्वितीयं जन्म प्राप्य नरः पवित्राचरणत्वं प्रतिपद्यते। तेन द्वितीयेन जन्मना मनुष्यो द्विजस्तज्जन्मप्राप्तिं विना च शूद्र उच्यते ॥९॥
टिप्पणी:१. ऋ० ९।३।९, साम० ७५८।